रह जाती है बहुत कुछ अनकही सुप्त, या फिर बेबस, बेचैन , शब्द बन जन्म लेते है जज्बात मंथन गतिमान होता उड़कर बाहर आने को आतुर व्याकुल होठों तक पहुँच काँप उठते फिर भी अनकही रह जाती , ख़ामोशी एक चादर तान देती और छिप कर रह जाते बहुत कुछ, एक प्रयत्न पुन: गतिमान शब्दों का निर्मित स्वरुप भावों की उड़ान सागर की लहरों सा संघर्ष फिर भी रह जाती अनकही ।
शनिवार, 18 फ़रवरी 2012
जीवन में सुख
क्यों री कोयल तुम फिर कूकने लगी अमराइयों में मदमस्त बावरी सी अपने प्रियतम ऋतुराज वसंत को रिझाने में।
सुध बुध खोयी तुम फिरती हो इधर- उधर चंचल सी कुहुक- कुहुक उठती हो छिपकर मंजरियों में तुम जानती हो, तेरा प्रियतम पुनः चला जायेगा तुम्हें छोड़कर इन्हीं फिजाओं में तब तुम प्रेमोन्नत हो मौन हो जाओगी , पुनः उसके
विरह में फिर भी जी लेना चाहती हो तुम एक एक पल अनुरक्त होकर एक सीख देती हुई की जीवन में सुख है थोड़ा पाने में ।