गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

यादें धुंधली सी

यादें धुंधली  सी 

एक याद धुंधली सी........
बचपन कीअठखेलियों से
टकराकर लौटती हुई, 
खेतों की पगडंडियों से 
गुजरती हुई..............
कोयल की कुक से 
 सुर मिलाती हुई .......
अभी भी सिमटी है 
मन के किसी कोने में।

बड़े से आँगन में 
मिल बैठ  बातें करते
रिश्ते और नाते 
इन सब के बीच  
बचपन किसी के भी 
आँगन से निकलकर 
किसी के भी गोद में 
अधिकार से बैठता 
कुछ रिश्ते अपनाता।


समय ने करवट ली 
रिश्ते सिमटने लगे 
साथ में सिमटने लगी 
खिड़कियाँ, दरवाजे और आँगन 
एक निश्चित दायरा 
बचपन अब इसी में घूमता 
सोफे से पलंग तक
टीवी से फ्रिज तक
आँखे खोयी रहती 
गेमों की दुनिया में 
अब जीना है 
बचपन को सीमा में ।


बस्तों के बोझों से 
झुकते हुए कंधे 
न ममता की लोरी 
न दादी की थपकी 
न तारों से बातें 
न चंदा को ताने 
तितलियों के पीछे 
बोलो कौन भागे?
 
बस यादें बसी हैं 
धुंधली सी गाँव के 
बचपन की ।      
  

रविवार, 22 अप्रैल 2012

भागता बचपन

                        भागता बचपन 


              ब्लॉगर  साथियों नमस्कार । कुछ दिनों तक मै आपसब से दूर रही । बहुत जगह घूमना हुआ और इसके साथ मैंने आज की पीढ़ी के बच्चों का अध्ययन भी किया । जिस समस्या को लेकर मै चल रही थी, वो था आज के बच्चो का बदलता व्यवहार । यह कोई समस्या नहीं है बल्कि आज की बदलती जिन्दगी के बीच बच्चों में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक है । अब हम वैसे बच्चों को नहीं पाएंगे जो सिर्फ और सिर्फ बड़ों की छत्रछाया में रहें और उनके अनुसार ही चले । उनकी दुनिया भी हमारी तरह ही आगे भाग रही है बल्कि हमसे भी दो कदम आगे है । आज घर में पेन्ट कराना हो तो बच्चे ही रंग पसंद करते है , कोई गैजेट लेना हो तो सबसे पहले वे ही बताते है की लेटेस्ट क्या है ? कपड़ों से लेकर हमारे सभी पसंद पर बच्चे हावी हो गए है और हम उनपर बिलकुल निर्भर । यहाँ तक तो ठीक है , हम उनके तीव्र बुद्धि के कायल है , हमें अच्छा भी लगता है कि हमारे बच्चे अभी से ही हमारे सहायक हो गए हैं ।
                 हम बच्चों के हर फैसले को मानने लगे है लेकिन क्या बच्चे हमारे फैसले मान रहे है ? बिल्कुल नहीं और न ही उनमे आज्ञाकारिता का गुण ही नजर आता है । यह सही है कि सभी बच्चों पर यह लागु नहीं होती पर बहुतायत यही है । बच्चों को पॉकेट मनी अधिक चाहिए क्योंकि वे अपने दोस्तों से किसी भी हालत में कम नहीं रहना चाहते । माता पिता से अधिक उन्हें अपने दोस्तों कि बात अच्छी लगती है । यदि माता पिता उनके दोस्तों को नसीहत देते है तो वे इसे अपना अपमान समझने लगते हैं । दोस्तों के सामने उन्हें डांटना  भी नागवार गुजरता है और इसके लिए भी अपने माता पिता से लड़ने लगते है । एक आठ वर्षीय लड़के की बात मै बताती हूँ जिसे उसकी मम्मी ने धूप में क्रिकेट खेलने से मना किया और उसे उसके दोस्तों के बीच ही डांट दिया  । उसके बाद वो बच्चा अपनी माँ से लड़ पड़ा और इसी क्रम में कई घुसे भी माँ को जड़ दिए । क्रोध उसके अन्दर इतना था कि किसी की सुनने के लिए तैयार ही नहीं था । क्यों इतने उग्र होते जा रहें है आज के बच्चे ? वो संस्कार , वो बड़ो के आदर की परम्परा क्यों उनमे नहीं हो रही ?
                 दोस्तों के साथ पार्टी उनकी नयी चाहत बन गयी है। यह पार्टी भी कोई छोटी-मोटी नहीं होती बल्कि इसमें भी अपनी शान दिखाने की सोंच होती है । अब यदि उन्हें इसके लिए पैसे नहीं मिले तो घर में तूफान खड़ा हो जाता है । कैसे रोक लगेगी इन सब पर? हम अपनी जड़ों से दूर होते जा रहे हैं और हमारे बच्चे हमसे ही दूर होते जा रहे हैं । क्या इसके दोषी सिर्फ हम हैं ?