सब कुछ बीत गया, अन्ना हजारे का अनशन फिर बाबा रामदेव का बहुचर्चित अनशन . लाठियां चली , भगदड़ मची, पुलिस की झूठी दलील तो मीडिया की पोल खोलती रिपोर्ट . सरकार की जिद और तानाशाही तथा बिरोधी पार्टी का मुद्दा लपकना . इन सब के बीच भी कुछ हुआ वो था एक संत का बिना किसी तामझाम का अनशन और एक सबसे अच्छी मुहीम के लिए अपनी बलि देना. स्वामी निगमानंद ने अनशन के द्वारा जो अपनी बलि दी , काश हम उसे समझ पाते . एक संत ने वह भागीरथ प्रयास किया जो बिना किसी हो हल्ला का था शायद इसीलिए किसी ने उनकी सुध नहीं ली और जब सुध ली गयी तब तक वे जा चुके थे पर उनका सपना अधुरा रह गया . मै इसमे मीडिया को भी दोष देती हूँ क्योंकि रामदेव और अन्ना के अनशन को तो उसने प्रमुखता से प्रचार किया लेकिन क्या उसे निगमानंद के अनशन को अनदेखा कर देना चाहिए था. लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ क्यों यहाँ पीछे रह गया? क्या उस संत का मौन समर्पण ही इसका कारन था? भगत सिंह की वो बातें याद आती हैं जब उनहोंने कहा था कि बहरों को सुनाने के लिए जोर से आवाज करनी चाहिए . पर इस संत ने चुपचाप ही जनता के सामने गंगा मुक्ति का अभियान रख दिया . नमन है इस संत की.
रविवार, 19 जून 2011
शनिवार, 11 जून 2011
चुनौती
फिर उम्मीद टूटी
निराशा जाग उठी
अँधेरा बढ़ता गया
दिए की एक लौ ने
चुनौती दी कि आगे बढ़ो
मुकाबला करना होगा
अँधेरे को भागना होगा
तू डर मत
है कठिन पल
अकेले का सफर
कठिन है डगर
फिर भी रख हिम्मत
ऐ निराश मन
चल उठ बढ़
मंजिल अभी दूर है
तो तुझमे भी जुनून है
रख हिम्मत निडर बन
बढ़ा कदम
तू जीत जायेगा
अँधेरा भाग जायेगा
अब मिलेगी रौशनी जो
साथ देगी उम्र भर
जीत जा तू यह चुनौती
यह चुनौती, यह चुनौती .
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