शनिवार, 24 मार्च 2012

परिंदा

                                         परिंदा 

यह नाम मेरी उस कविता का है जो कादम्बिनी में प्रकाशित हो चुकी है और मुझे बहुत ही प्रिय है इसीलिए  मै अपने ब्लॉग का नाम परिंदा रखी हूँ।

यह उस परिंदे को समर्पित है जो मेरे घर काफी दिनों से पिंजरे में था और आज उसने अंतिम सांसें भी उसी पिंजरे में ली। बहुत दुःख हुआ मुझे । उसका  चले जाना एक रिक्त स्थान का हो जाना है। शायद बहुत कुछ छूट गया मुझसे ------एक अधूरापन 


परिंदा 

चारो तरफ गोल-गोल चक्कर लगाया

एक निश्चित परिधि के अन्दर 

झल्लाकर सिमटे हुए पंख फद्फदाये 

उड़ने के लिए 

अफसोस उड़ न सका 

जोर-जोर से चिल्लाया 

गुंजायमान हो उठा दिगंत 

पर सुर की मधुरता न थी 

थी बस बेबसी और लाचारी 

छिन गया  था उससे उन्मुक्त गगन

पेड़ों पर फुदकना और मधुर संगीत 

कुछ नहीं था वहां 

था केवल एक पिंजरा 

जिसका वह था बंदी परिंदा 

मै साक्षी थी 

उसकी बेबसी, लाचारी 

क्रोध और झल्लाहट की 

कुछ दाने दे जाती चुगने के लिए 

तब वह स्वाभिमान से कटोरी पलट देता 

पुनः गिरे हुए दाने चुगता 

मानों हमें सन्देश देता 

अपनी स्वछंदता  का

समय के साथ वह भूलता गया 

पंख फदफदाना 

अपना लिया अपने हिस्से की जगह 

जिसमे सिमट कर रहना था 

अब वह पिंजरे से बाहर भी आता  

पर उड़ नहीं पता 

ख़त्म हो चुकी थी उसकी 

बेबसी और लाचारी 

समझौता कर लिया था परिस्थितियों से 

और भूल चूका था कि वह परिंदा है 

उन्मुक्त गगन का 

हम दोनों में एक ही समता थी 

परिस्थितियों से समझौता कर लेने की 

और अपने सामर्थ्य को भूल जाने की ।    

         



सोमवार, 12 मार्च 2012

ख्वाहिश 

खुशियाँ पाने की तमन्ना थी 
उड़कर बादलों से मिलने 
और कुछ कहने की लालसा थी ।

आसमान से सितारे तोड़कर 
किसी के आँचल में
 भर देने की इच्छा थी ।

तितलियों से रंग चुराकर 
जिन्दगी  रंगीन 
बनाने की ख्वाहिश थी। 

नदी की शांत जलधारा को 
अपने प्रियतम सागर से  
मिलने की व्यग्रता थी ।


किसी कली की मुस्कुराहट पर
एक भ्रमर बनकर 
गुंजन करने की चाहत थी ।



ऐ जिंदगी! तुझे भरपूर जीने के लिए 

मैं से हम बनकर 
कदम बढ़ने की जरुरत थी ।