जीवन में सुख
क्यों री कोयल
तुम फिर कूकने लगी
अमराइयों में ,
मदमस्त बावरी सी
अपने प्रियतम ऋतुराज
वसंत को रिझाने में,
सुध-बुध खोयी तुम
फिरती हो इधर-उधर चंचल सी
कुहुक-कुहुक उठती हो छिपकर
मंजरियों में
तुम जानती हो तेरा प्रियतम
पुन: चला जायेगा तुम्हे छोड़कर
इन्ही फिजाओं में
तब तुम प्रेमोन्नत हो
मौन हो जाओगी पुन: उसके
विरह में
फिर भी जी लेना चाहती हो तुम
एक-एक पल अनुरक्त होकर
एक सीख देती हुई
कि जीवन में सुख है
थोड़ा पाने में.
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