नमो की हुंकार रैली और आम जनता के साथ हादसा

किसे दोष दिया जाय रैली को या प्रशासनिक विफलता को ? जो कुछ हुआ पटना में वह बहुत ही निंदनीय था। यदि विरोध ही करना था आतंकियों को तो नरेंद्र मोदी को काले झंडे दिखाते, विरोध प्रदर्शित करने के अन्य तरीके भी अपनाये जा सकते थे लेकिन मानवता का यह क्रूर रूप क्या सही था? कई घरों के लोग घायल हुए और मर गए , हो सकता है कि वे रैली में जाने वाले नहीं होंगे , पर उनके साथ हादसा तो हुआ न। आतंक फैल जाने से रैली तो नहीं रुकी , यह भी लाभ हो सकता है कि नरेद्र मोदी और अधिक प्रसिद्ध हो जाएँ लेकिन आतंकी के प्रति जनता की सहानुभति तो नहीं पैदा हुई बल्कि नफरत की आग और भड़क उठी , पुनः धर- पकड़ होने लगे , जो पकड़े गए उनके प्रति जनता का मन उग्र ही हुआ। मेरा मन बार-बार यही सोंचता है कि कब वो दिन आएगा जब सभी आतंकी समाज की तरक्की के बारे में सोचेंगे , राष्ट्र की उन्नति ही उनका मुख्य मकसद होगा ?
राजनितिक दल अपनी राजनितिक रोटियां सेंकने में लगे हैं और जनता जो झेल रही है उसका दर्द तो वही जानते हैं जिनके अपने इस कांड के बाद उनसे सदा के लिए दूर हो गए। सत्ता बदलेगी या फिर नहीं ये तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा लेकिन कोई भी पार्टी ये दावा नहीं कर सकती कि उनके शासन में यह सब नहीं होगा। नरेन्द्र मोदी को सुनना बहुत लोग चाहते थे क्योकि अधिकतर घरों के लोग टीवी से चिपके ही रहे , गांधी मैदान की भीड़ भी यही बता रही थी और यदि हादसा नहीं होता तो और भीड़ बढ़ ही जाती। आगे राजनीति में क्या होगा यह तो समय ही बतायेगा।