अस्तित्व
मैं स्वयं में '' मैं '' को तलाश रही थी
पर मेरा '' मैं '' कब का हम बन चुका था
जुड़ चुका था रिश्तों की डोर से
बंध चुका था अपनों की ओर से
निकलने की तड़प बार-बार उठती
फिर दबी रह जाती अपनों की शोर में
टूटते और बनते सपने
उड़ान भरती आशाएं
दुर गगन को छूने की चाहत
पर पुनः रोकती बाधाएँ
बाँध लेती रिश्तों की डोर में
खोजती रह जाती मैं उनमें
अपने अस्तित्व को................
सुंदर अभिव्यक्ति !!
जवाब देंहटाएंरिश्तों के सुख में 'मैं' को भूलना ही पडता है ..
एक नजर समग्र गत्यात्मक ज्योतिष पर भी डालें !!
आभार संगीता जी ......
हटाएंलाजबाब प्रस्तुति,,,
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना ,,,,,
RECENT POST ...: आई देश में आंधियाँ....
naari jivan sampurn jagat ke astitv ka adhaar hai..fir bhi maun dharan kiye apne astitv ko tlash rahi hai...bahut sundar..
जवाब देंहटाएंवाह: बहुत ही सारगर्भित रचना..संध्या जी..आभार
जवाब देंहटाएंसमाज और परिवार के दायित्यों के बीच "मैं" जाने कहा गुम हो जाता है......मगर इसे बचाए रखने में ही सुख है..
जवाब देंहटाएंसुन्दर भाव.
अनु
हम में आने के बाद मैं कहां रह जाता है ... उअका अस्तित्व तो ह से बांध के ही रह जाता है ... मैं की छटपटाहट लिए उम्दा भाव ...
जवाब देंहटाएंनिरंतर एक खोज , प्राप्य फिर खोज
जवाब देंहटाएंधन्यवाद रश्मिजी
हटाएंkabhi kabhi sw ko kho kar pehchan milti hai,,,..... sunder abhivyakti
जवाब देंहटाएंshubhkamnayen
धन्यवाद
हटाएंरिश्तों की डोरी में बंधने के बाद 'मैं' कहीं खो ही जाता है और आप हम के क्षेत्र में विस्तार पाती हैं ..
जवाब देंहटाएंयह विस्तार एक तरह से अच्छा ही है ..
लेकिन बंधन कभी भी सपनों की उड़ान में बाधा नहीं बननी चाहिए ..
खुद को तलाशती सुंदर रचना !
सादर !
बहुत ही सारगर्भित रचना,आभार.......
जवाब देंहटाएंधन्यवाद........स्वागत है आपका मेरे ब्लॉग पर
हटाएंमन को छू गये आपके विचार।
जवाब देंहटाएं............
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गहन भाव लिए रचना ..वैसे मै का खो जाना बुरा नहीं ..हम बन कुछ धनात्मक ही हो ..लेकिन हम क्यों कैसे किस के लिए याद रहे अपना अस्तित्व ..तो आनंद और आये ..सुन्दर
जवाब देंहटाएंभ्रमर ५
जिन्दगी में मै और हम के बीच अपनी पहचान बनानी होती है
हटाएंbahut gahan anubhuti ki bat...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद निशा जी
हटाएंvery well written..
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