परिंदा
परिंदा
यह नाम मेरी उस कविता का है जो कादम्बिनी में प्रकाशित हो चुकी है और मुझे बहुत ही प्रिय है इसीलिए मै अपने ब्लॉग का नाम परिंदा रखी हूँ।
यह उस परिंदे को समर्पित है जो मेरे घर काफी दिनों से पिंजरे में था और आज उसने अंतिम सांसें भी उसी पिंजरे में ली। बहुत दुःख हुआ मुझे । उसका चले जाना एक रिक्त स्थान का हो जाना है। शायद बहुत कुछ छूट गया मुझसे ------एक अधूरापन
परिंदा
चारो तरफ गोल-गोल चक्कर लगाया
एक निश्चित परिधि के अन्दर
झल्लाकर सिमटे हुए पंख फद्फदाये
उड़ने के लिए
अफसोस उड़ न सका
जोर-जोर से चिल्लाया
गुंजायमान हो उठा दिगंत
पर सुर की मधुरता न थी
थी बस बेबसी और लाचारी
छिन गया था उससे उन्मुक्त गगन
पेड़ों पर फुदकना और मधुर संगीत
कुछ नहीं था वहां
था केवल एक पिंजरा
जिसका वह था बंदी परिंदा
मै साक्षी थी
उसकी बेबसी, लाचारी
क्रोध और झल्लाहट की
कुछ दाने दे जाती चुगने के लिए
तब वह स्वाभिमान से कटोरी पलट देता
पुनः गिरे हुए दाने चुगता
मानों हमें सन्देश देता
अपनी स्वछंदता का
समय के साथ वह भूलता गया
पंख फदफदाना
अपना लिया अपने हिस्से की जगह
जिसमे सिमट कर रहना था
अब वह पिंजरे से बाहर भी आता
पर उड़ नहीं पता
ख़त्म हो चुकी थी उसकी
बेबसी और लाचारी
समझौता कर लिया था परिस्थितियों से
और भूल चूका था कि वह परिंदा है
उन्मुक्त गगन का
हम दोनों में एक ही समता थी
परिस्थितियों से समझौता कर लेने की
और अपने सामर्थ्य को भूल जाने की ।
बहुत ही गहरी अभिव्यक्ति है ...
जवाब देंहटाएंwaah sandhya jee bahut achcha lga aapke blog pr aakr aur aapki abhiwyakti padhkr.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंबेहद मार्मिक....
सस्नेह.
किसने रोका उसे आज़ाद करने से? आप तो कवि-हृदय थीं। जब जीते-जी एक तोते को भी आज़ाद न कर सकीं,तो अब कविता लिखकर पछतावा करने का आडम्बर क्यों? क्षमा कीजिएगा।
जवाब देंहटाएंमार्मिक ... नारी मन की व्यथा को पंछी के माध्यम से उकेरा है ...
जवाब देंहटाएंhttp://urvija.parikalpnaa.com/2012/03/blog-post_26.html
जवाब देंहटाएंक्या कहूं,
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
..पर उड़ नहीं पाता
जवाब देंहटाएंख़त्म हो चुकी थी उसकी
बेबसी और लाचारी
समझौता कर लिया था परिस्थितियों से
मार्मिक अभिव्यक्ति
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ....शुभकामनायें आपकी लेखनी को !
जवाब देंहटाएंअच्छी अभिव्यक्ति है....
जवाब देंहटाएंवाह ! ! ! ! ! बहुत खूब संध्या जी
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना,बेहतरीन भाव प्रस्तुति,....
आपका फालोवर बन गया हूँ आप भी बने मुझे खुशी होगी
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: तुम्हारा चेहरा,
उसकी बेबसी, लाचारी
जवाब देंहटाएंक्रोध और झल्लाहट की
कुछ दाने दे जाती चुगने के लिए
तब वह स्वाभिमान से कटोरी पलट देता
पुनः गिरे हुए दाने चुगता
मानों हमें सन्देश देता
अपनी स्वछंदता का..
बहुत खूब संध्या जी ...स्वछंदता होती ही ऐसी है काश हम मानव भी इनसे सीखें गुलाम और चाटुकार न बनें ..
सुन्दर रचना
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भ्रमर का दर्द और दर्पण
बेहद मार्मिक. मन की अवस्था का बहुत सुन्दर चित्रण चाहे वो परिंदे का हो या उसके जाने के बाद की रिक्तता का. शुभकामनाएँ.
जवाब देंहटाएंबेहद अर्थपूर्ण...पिंजड़े का पंछी और नारी जीवन एक समान|
जवाब देंहटाएंपरिंदा आपने ही पाला था और उसकी व्यथा को महसूस तब किया जब वह नहीं रहा...कैसी त्रासदी है यह जीवन की..
जवाब देंहटाएंनिश्चित रूप से आपकी पसंदीदा रचना हमें भी बहुत पसंद आयी.....आपका लेखन प्रसंशनीय है ...!
जवाब देंहटाएंबेहद मार्मिक और गहन अभिव्यक्ति.....अभिव्यंजना में आने के लिए आभार...
जवाब देंहटाएंअब वह पिंजरे से बाहर भी आता
जवाब देंहटाएंपर उड़ नहीं पता
ख़त्म हो चुकी थी उसकी
बेबसी और लाचारी
समझौता कर लिया था परिस्थितियों से
और भूल चूका था कि वह परिंदा है
bahut hi sundar rachana gahan chintan ke liye vivash karti hui ....badhai sweekaren tiwari ji
हम दोनों में एक ही समता थी
जवाब देंहटाएंपरिस्थितियों से समझौता कर लेने की
और अपने सामर्थ्य को भूल जाने की ।
गहन अभिव्यक्ति