शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

                                             हैप्पी मकरसंक्रांति 
 नये साल में हिन्दू धर्म का पहला त्यौहार . १४ जनवरी को यह पर्व एक तरह से फिक्स हो गया है . हिन्दू  पंचांग के अनुसार इस साल १५ जनवरी को यह पड़ता है लेकिन अधिकतर लोग  आज ही मना रहे हैं. मेरे आस - पास तो आज ही मनाया जा रहा है. ये लोग कह रहे हैं कि करना क्या है, गंगा में डुबकी लगाना है और दही-चूरा खाना है तो आज हो या कल , क्या फर्क पड़ता है.
              इस साल की ठंढ  ने हाड़ कंपा दी है . कई बुजुर्ग तो भगवान के प्यारे हो चुके हैं और कई इस इंतजार में हैं की कब उनका बुलावा आता है. हमारे बिहार के मुख्यमंत्री की माँ भी इसी ठंढ में उन्हें छोड़ कर चली गयी . हर साल ठंढ में  मै कम्बल दान करती हूँ और सबसे पहला कम्बल मेरे घर की पुरानी काम वाली को देती हूँ. हमलोग उसे दादी कहते हैं. अब वो काम नहीं करती है लेकिन अक्सर हमारे घर आती रहती है और हम उन्हें हमेशा कुछ न कुछ  देते रहते है. इस बार काफी  दिन से दादी नहीं आई थी और सब ने येही मान लिया था की वो मर गयी होगी लेकिन आज जब दही चूरा लेने वो पहुंच गयी तो सब की आँखे फटी की फटी रह गयी. "अरे ! बुढ़िया अभी जिन्दा है ." सबके मुंह से यही निकला . मैं पूछी कि "दादी अबकी ठंढा भी डरी गेले तोहरा से ". दादी की पोपली हंसी ने पुनह रोमांच भर दिया और सूरज भी उनका साथ देने के लिए मेरे आँगन में झाँकने लगे , धूप अच्छी रही आज .

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