मंगलवार, 6 मई 2014

सड़क पर तड़पती एक जिंदगी

सड़क पर तड़पती एक जिंदगी


मर गई मानवीयता 
मुँह फेर लेती इंसानियत 
तड़पती, विलखती जिंदगी 
दूर खड़ी तमाशबीन संवेदना 
सिमट कर रह गयी भावना। 

बना लिया है हमने 
एक निश्चित दायरा 
स्वयं से निकलकर 
स्वयं में ही मिलती 
हमारी जिंदगी। 

एक पल के लिये ठहरी 
पुनः गंतव्य की  ओर 
देख भर लिये हमने 
सड़क पर तड़पती 
एक जिंदगी ………… 


सड़क दुर्घटना पर लोगों की सुप्त मानवता से आहत मेरी ये रचना ……… 

9 टिप्‍पणियां:

  1. सटीक! जाके कभी न पड़ी बिवाई ... जब तक स्वयं कष्ट में न पड़ें, हमें किसी का दर्द भी नहीं दिखाता, न अपनी ज़िम्मेदारी और सही-गलत का अंतर ही समझ आता है, अफसोस!

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  2. संवेदनाएं मर गयी हैं ... हैं भी तो अपने से ऊपर जा कर ख़त्म हो जाती हैं ...

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  3. मन को उद्वेलित करती रचना ..... हमारी संवेदनाएं और मानवीयता मर ही गयी है.....

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  4. ☆★☆★☆



    मर गई मानवीयता
    मुँह फेर लेती इंसानियत
    तड़पती, विलखती जिंदगी
    दूर खड़ी तमाशबीन संवेदना
    सिमट कर रह गयी भावना

    सचमुच हम बहुत संवेदनहीन हो चुके हैं..

    आदरणीया डॉ.संध्या तिवारी जी
    कविता के बहाने हम समाज को सोचने का अवसर देते हैं...
    मानवीयता को प्रेरित करती आपकी कविता के लिए साधुवाद स्वीकार करें ।

    मंगलकामनाओं सहित...
    -राजेन्द्र स्वर्णकार


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  5. वर्तमान की अमानवीयता का कटु सत्य है..
    भावपूर्ण रचना...

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  6. संवेदनहीनता की पराकाष्ठा ..

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  7. समाज की संवेदनहीनता उजागर करती एक उम्दा रचना !

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