शनिवार, 13 जुलाई 2013

   पहचान 



नदी  में चंचलता थी
नवयौवना सी तीव्रता थी
इतराती , बलखाती
प्रेयसी बन उतावला थी



सागर की व्यग्रता
उसे बार - बार खीचती
उठती - गिरती लहरों से
आमंत्रित करती



नदी की चाल और तेज होती
धाराएँ  बदल वो दौड़ लगाती
अपनी ही धुन में भागती
सागर की आगोश में जा गिरती



सागर से मिल नदी
मौन हो गयी
प्रेम में पागल थी
प्रेम में विलीन हो गयी



पर अब भी नदी बेचैन थी
सागर के दिल में कैद थी
आकुलता - व्याकुलता
आंदोलित मन, नदी की चाहत
अपनी पहचान की तड़प
क्योंकि नदी अपनी पहचान
सागर से मिल खो चुकी थी|