अनकही
रह जाती है बहुत कुछ
अनकही
सुप्त, या फिर बेबस, बेचैन ,
शब्द बन जन्म लेते है
जज्बात
मंथन गतिमान होता
उड़कर बाहर आने को आतुर
व्याकुल
होठों तक पहुँच काँप उठते
फिर भी अनकही रह जाती ,
ख़ामोशी
एक चादर तान देती
और छिप कर रह जाते
बहुत कुछ,
एक प्रयत्न पुन:
गतिमान
शब्दों का निर्मित स्वरुप
भावों की उड़ान
सागर की लहरों सा
संघर्ष
फिर भी रह जाती
अनकही ।
जीवन में सुख
क्यों री कोयल
तुम फिर कूकने लगी
अमराइयों में
मदमस्त बावरी सी
अपने प्रियतम
ऋतुराज वसंत को
रिझाने में।
सुध बुध खोयी तुम
फिरती हो इधर- उधर चंचल सी
कुहुक- कुहुक उठती हो छिपकर
मंजरियों में
तुम जानती हो, तेरा प्रियतम
पुनः चला जायेगा तुम्हें छोड़कर
इन्हीं फिजाओं में
तब तुम प्रेमोन्नत हो
मौन हो जाओगी , पुनः उसके
विरह में
फिर भी जी लेना चाहती हो तुम
एक एक पल अनुरक्त होकर
एक सीख देती हुई
की जीवन में सुख है
थोड़ा पाने में ।