रविवार, 29 जनवरी 2012

मन को आंदोलित करती -------------

कितनी शर्मनाक है यह घटना, रोंगटे खड़े करने वाली । दसवी में पड़ने वाली केरल की एक नाबालिग  के साथ बलात्कार, एक बार नहीं बार-बार और पहला अपराधी स्वयं उसका पिता।  क्या यह घटना मन को आंदोलित नहीं करती ? हम कहाँ जा रहे हैं? नैतिकता मरती क्यों जा रही है? रिश्ते अपनी मर्यादा क्यों तोड़ रहे है? क्या यह अति की पराकाष्ठा  नहीं है?
                   केरल हाईकोर्ट ने 150 लोगों को आरोपी बनाया है, वो भी अच्छे और उच्च पदस्थ लोग। वाह रे! समाज और वाह रे! हमारी शिक्षा । सब कुछ दम तोड़ती  जा रही है । " विद्या से विहीन मनुष्य पशु के सामान है ", नीतिशतक के लेखक शायद यह नहीं जानते थे कि कलयुग में विद्या प्राप्त कर भी मनुष्य पशु बन सकता का है।
         दोषियों को सजा मिल भी जाएगी तो क्या वो लड़की फिर से अपना सामान्य जीवन जी सकेगी ? दोषियों को बहुत होगा तो कारावास की सजा मिलेगी , लेकिन वह -------------वह  तो  रोज हजार बार मरती होगी । अन्याय से लड़ने की  हिम्मत ने उसे दलदल  से तो अवश्य निकाला , परन्तु न्याय मिलने के बाद भी उसका क्या होगा ?
          वो माँ जो ये कहती है कि मौत के डर से अपनी बेटी को इस दलदल  में भेजती  रही , अगर वो मर ही जाती तो क्या होता , कम-से-कम रोज यह कुकर्म तो नहीं देखती । आज तो वो भी बराबर कि अपराधिनी है साथ ही जीवित रह कर भी मृत हो चुकी है -अपनी बेटी के लिए, समाज के लिए , राष्ट्र के लिए और स्वयं अपनी आत्मा से । इन सभी अपराधियों को माफी नहीं मिलनी चाहिए। 
                न्याय अवश्वय मिले पर साथ ही न्यायालय उस लड़की के भविष्य को सुरक्षित करने हेतु भी कुछ उपाय करे । सरकार एवं स्वयंसेवी संस्थाएं भी आगे आकर उस लड़की को  पुनः जीवन गति प्रदान करे। उसकी सुप्त आत्मा को जागृत करे और नवजीवन के पथ पर अग्रसर करे, यही हमारी कामना है।

शुक्रवार, 20 जनवरी 2012


                 स्कूलों की मनमानी 
स्कूलों में नामांकन की प्रक्रिया शुरू हो गयी है और इसी के साथ माता पिता की परेशानी भी. पब्लिक स्कूलों में माता पिता को भी गुजरना पड़ता है परीक्षा के दौर से और यदि उनकी डिग्री कम रही तो शर्मिंदगी भी उठानी पड़ती है . मुझे तो ताज्जुब होता है उन भारतीय इसाइयों पर जो खुद को अंग्रेजों की संतान समझते है और हिदी भाषी मातापिता को हीन नजरों से देखते हैं . मेरे पड़ोस के कुशाग्र बुद्धि के बच्चे का नामांकन प्रतिष्ठित स्कुल में इस वजह से नहीं हो सका क्योंकि उसके माता पिता को अंग्रेजी का ज्ञान नहीं था . काफी दुःख हुवा ये जानकर  मुझे. मोटी रकम तो वसूल करते ही है ये स्कुल ऊपर से रोज नए नियम निकाल बच्चों के माता पिता से पैसे भी लेते रहते है .उनकी बढती फीस और स्कुल से ही पुस्तकों को खरीदने की मज़बूरी , क्या ये अभिभावकों का शोषण करना नहीं हुआ? 
               हलाकि गलती हमारी भी है, हम आँख मूदकर इन स्कूलों के पीछे भागते रहते हैं , तो इनकी मनमानी भी सहनी पड़ती है क्योंकि हम ही इन्हे शह भी देते है . हम स्टेटस के पीछे भागते हुए अपने बच्चे के साथ अन्याय करते हैं और खुद भी मानसिक तनाव में जीते हैं . कंधो पर बस्तों  का बोझ बच्चों को झुकता जा रहा है और फीस का बोझ हमें झुकता जा रहा है. काश की हम मिलकर जाग जाएँ अपने बच्चों के लिए .