गुरुवार, 20 सितंबर 2012

एक पगली 

उस रोज की  तरह 
वह आज भी चिल्लायी ,
तड़पी , जी भर के रोयी ,
अपनी बेबसी , लाचारी ,
सिमटती खुशियों के बीच 
उम्मीद की किरण की आस थी 
पुनः मधुर प्रणय की  प्यास थी
पर रिश्तों के धागे  टूट चुके  थे  
उसकी तड़प को  मान  चुके थे 
कि अब वो बन के रह गयी 
बस एक पगली ...........बस एक पगली 


उस पगली को रोज देखती  हूँ और मन व्यथित हो जाता है , सोंचती हूँ इसका भी कोई परिवार होगा पर क्यों इसे ऐसे छोड़ दिया ?
 

20 टिप्‍पणियां:

  1. मन विह्वल करती रचना ...!!कैसे लोग इतने अन्यायी हो जाते है ...??

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  2. परिवार तो होगा,,,पर बेसहारा सडको पर भटकने के लिये अकेला क्यों छोड़
    जाते है,,
    मन को कचोटती रचना,,,,

    RECENT P0ST ,,,,, फिर मिलने का

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  3. बेबसी पागल कर देती है...सच है!!!

    मार्मिक.

    अनु

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  4. apki kavita me bahut hi hridaya vidarak pida chipi huyi hai..

    ek marmspashi bhavana..
    sundar..

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  5. और अब यही उसकी पहचान बन गयी...दुखद..

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  6. सार्थक अभिव्यक्ति। मेरे नए पोस्ट 'समय सरगम' पर आपका इंतजार रहेगा।

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  7. आस के धागे जब टूटते हैं ... उम्मीद की किरण गुम हो जाती है ..
    पागल होने के सिवा कुछ रहता ही कहाँ हैं ...
    भावमय रचना ...

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  8. आपका काव्य चित्रण एवं कविता में सन्निहित भाव अच्छे लगे। मेरी नई पोस्ट 'बहती गंगा' पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद।

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  9. dard ki inteha hi insan ko pagal bana deti hai achchi sonch ke sath dard komahsus kiya hai apne.

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  10. मार्मिक दृध्य है, परिवार ही न रहा हो ऐसा भी हो सकता है ...

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