बुधवार, 14 सितंबर 2011

                     हिंदी दिवस के बाद 

काफी धूम- धाम से मन हिंदी दिवस. लम्बे-लम्बे भाषण चले, अनेकों दावे हुए , हिंदी को अंग्रेजी से बचाने की शपथ ली गयी और साथ में गीत संगीत के कार्यक्रम भी हुए लेकिन अगले दिन से फिर वाही दिनचर्या. बिना गुड मोर्निग के सुबह नहीं होती और टा-टा...... बाई-बाई.........के बिना बच्चे भला स्कूल कैसे जाते . प्रणाम...........नमस्कार आदि पुराने और देहाती टाइप के जो लगते हैं. 
           मेरी दीदी अंग्रेजी सीखने के लिए दछिण भारतीय किसी महिला को टीचर   राखी है क्योंकि उसके बच्चे उसे हिंदी बोलने पर खूब चिढाते हैं . लड़कियां अंग्रेजी बोलने का क्लास कर रही हैं क्योंकि ससुराल वाले अंग्रेजी बोलने वाली बहु चाहते हैं. अब  तो घर की काम वाली भी टूटी-फूटी अंग्रेजी ही सही लेकिन बोलती जरुर है. 
         ये भी सही है की समय की मांग है अंग्रेजी और पूरी दुनिया जब  ग्लोबल विलेज बन गयी है तो ऐसे में अंग्रेजी मुख्या संपर्क की भाषा बन गयी है . अतः आज के अनुसार चलने के लिए अंग्रेजी अनिवार्य बन गयी है और ese सीखना और बूलना गलत नहीं है फिर भी अपनी मात्री भाषा  की उपेच्छा नहीं करनी चाहिए. भले हम बाहर अंग्रेजी बोलें  लेकिन  अन्य जगह हिंदी और बिंदी दोनों की पहचान होनो चाहिए . सिर्फ हिंदी दिवस मनाने से कुछ नहीं होगा. हमें हिंदी का प्रयोग सभी जगह करनी चाहिए और खासकर बच्चों को अधिक हिंदी का अभ्यास कराना चाहिए तभी हमारी हिंदी अपने गौरव को प्राप्त कर सकती है .

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